Utpanna Ekadashi 2025 Date

Utpanna Ekadashi 2025 Date


Utpanna Ekadashi is the Krishna Paksha Ekadashi that follows Kartik Purnima. After Devutthana Ekadashi, it is the following Ekadashi.

Utpanna Ekadashi is a notable Ekadashi since it is linked with the beginning of Ekadashi fasting. All Ekadashi fasting is devoted to Goddess Ekadashi, one of Lord Vishnu's Shaktis. Ekadashi was created by Lord Vishnu to destroy Demon Mur, who planned to slay the sleeping Lord Vishnu. As a result, Goddess Ekadashi is one of Lord Vishnu's protection powers. Goddess Vaishnavi is another Lord Vishnu power and a component of Sapta Matrika.

Hence Ekadashi's birth anniversary is celebrated on Utpanna Ekadashi. Devotees who commit to fast yearly begin Ekadashi fasting on Utpanna Ekadashi.

Utpanna Ekadashi 2025 Date & Time

Ekadashi Tithi Begins - 00:49 on Nov 15, 2025
Ekadashi Tithi Ends - 02:37 on Nov 16, 2025

Utpanna Ekadashi 2025 DateSaturday, November 15, 2025

Utpanna Ekadashi Parana Time On 16th Nov - 13:10 to 15:18
On Parana Day Hari Vasara End Moment - 09:09

Iskcon Utpanna Ekadashi 2025 Date & Time

Vaishnava Utpanna Ekadashi/ Iskcon Utpanna Ekadashi 2025 Date - Saturday, November 15, 2025
On 16th Nov, Parana Time - 09:09 to 10:19

Ekadashi Tithi Begins - 00:49 on Nov 15, 2025
Ekadashi Tithi Ends - 02:37 on Nov 16, 2025

Kaal Bhairav Jayanti 2025 Date

Kaal Bhairav Jayanti 2025 Date


Kalashtami, also known as Kala Ashtami, is a Hindu festival honoring Lord Bhairava, a fierce manifestation of Lord Shiva linked with devastation. He correctly punishes offenders and protects submissive followers. Lord Kala Bhairava rules over all 64 Bhairavas, which are commanded by 8 Bhairavas.

Bhairav Ashtami, Bhairava Jayanti, and Kala-Bhairava Ashtami are all names for Kala Bhairav Ashtami. Kalashtami, also known as Kalabhairav Jayanti, is observed in North India during the month of Margashirsha (December-January), but it is observed in South India during the month of Kartik (November-December). It should be noted, however, that both calendars commemorate Kaal Bhairav Jayanti on the same day. It is a sacred day celebrating the birth of Lord Bhairava, Shiva's ferocious form.

Kaal Bhairav Jayanti 2025 Date & Time

Kalabhairav Jayanti 2025 Date - Wednesday, November 12, 2025

Ashtami Tithi Begins - 23:08 on Nov 11, 2025
Ashtami Tithi Ends - 22:58 on Nov 12, 2025

Guru Nanak Dev Ji Gurpurab 2025 Date

Guru Nanak Jayanti, Gurpurab 2025

Guru Nanak (1469-1539 C.E.) was the first of the Sikh Gurus and the founder of the Sikhism. Guru Nanak Jayanti, also known as Guru Nanak's Prakash Utsav, is the time for the people to follow his teachings and devote their life in the selfless service of God. The "Gurpurab" word is derived from the joining of two words; Gur -  which means the Guru or  master, and Purab - which comes from the Hindi word parv, which means day. Thus Gurpurab is the day associated with the Guru. Guru Nanak's birthday is celebrated worldwide on the day of Kartik Purnima or the full moon day in the month of kartik as per Hindu lunar calendar.

Guru Nanak Jayanti | When is Gurpurab 2025?

गुरु नानक जयंती 2025 कब है?

Guru Nanak, the founder of Sikhism, was born on Vaisakhi Day, April 5, 1469 in Rai-Bhoi-di Talwandi in the present Shekhupura District of Pakistan, now Nankana Sahib. This is the 556th birth anniversary of Guru Nanak Dev. The date of the festival changes from year to year. Guru Nanak birthday 2025 is on November 05, Wednesday.


Guru Nanak Jayanti 2025 Date and Time

Guru Nanak Jayanti 2025 Date - Wednesday, November 05, 2025

Purnima Tithi Begins - 10:36 PM on Nov 04, 2025
Purnima Tithi Ends - 06:48 PM on Nov 05, 2025


Significance And Celebrations Of Gurpurab | Guru Nanak Jayanti


Guru Nanak Gurpurab is the day to remember the Guru Nanak. The five vices - lust, greed, attachment, anger and pride should be leaved. His teachings became part of Guru Granth Sahib, the holy book of the Sikhs. Two days before the Guru Nank Jayanti festival, Akhand Path - a 48-hour non-stop reading of the holy book of the Sikhs, "Guru Granth Sahib" is held at Gurdwaras. Nagarkirtan, a procession of devotees, is organised a day before Gurpurab. The procession is led with the holy book, "Guru Granth Sahib" and the Nishan Sahib (the Sikh flag) inside a buggy and followed by devotees singing hymns and prayers. People also perform 'Gatka', which is a type of marshal art with the sword.

Guru Nanak Jayanti celebrations start as early as 3 am, on the day of the festival. The time period between 3 am and 6 am is known as Amrit Vela, which is considered the appropriate time for recitation of hymns and meditation. Katha and Kirtan, a recital of scriptures and hymns in the praise of the Guru is carried out.

Guru Nanak Jayanti Langar | Guru Ka Langar


The Gurpurab celebrations are held with great fervour and joy at Golden Temple, Amritsar. Gurdwaras including Golden Temple organise a special community lunch, called Guru ka langar, which is served to anyone who wishes to come. Guru ka Langar is always a vegetarian and delicious meal. Lots of people can be seen preparing the langar in the kitchen. Kada Prasad is prepared and offered to Guru on this day to celebrate the holy festival of Gurpurab. Kada Prasad is a traditional sweet made using wheat flour, ghee and sugar. The Kada prasad is prepared in large quantities for people. This practise of distributing Langar and Kada prasad is the part of community service (seva) in the Sikh culture.

Wish you a very Happy Gurpurab 2025!

We at www.durganavratri.in wishes Happy Gurpurab 2025 to all!

Kartik Maas Mahatmya Katha Adhyaya 35

कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 35 (Kartik Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 35)


अनुपम कथा कार्तिक,
होती है सम्पन्न ।
इसको पढ़ने से,
श्रीहरि होते हैं प्रसन्न ॥


इतनी कथा सुनकर सभी ऋषि सूतजी से बोले- हे सूतजी! अब आप हमें तुलसी विवाह की विधि बताइए। सूतजी बोले- कार्तिक शुक्ला नवमी को द्वापर युग का आरम्भ हुआ है। अत: यह तिथि दान और उपवास में क्रमश: पूर्वाह्नव्यापिनी तथा पराह्नव्यापिनी हो तो ग्राह्य है। इस तिथि को, नवमी से एकादशी तक, मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से तुलसी के विवाह का उत्सव करे तो उसे कन्यादान का फल प्राप्त होता है। पूर्वकाल में कनक की पुत्री किशोरी ने एकादशी तिथि में सन्ध्या के समय तुलसी की वैवाहिक विधि सम्पन्न की। इससे वह किशोरी वैधव्य दोष से मुक्त हो गई।

अब मैं उसकी विधि बतलाता हूँ- एक तोला सुवर्ण की भगवान विष्णु की सुन्दर प्रतिमा तैयार कराए अथवा अपनी शक्ति के अनुसार आधे या चौथाई तोले की ही प्रतिमा बनवा ले, फिर तुलसी और भगवान विष्णु की प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा कर के षोडशोपचार से पूजा करें। पहले देश-काल का स्मरण कर के गणेश पूजन करें फिर पुण्याहवाचन कराकर नान्दी श्राद्ध करें। तत्पश्चात वेद-मन्त्रों के उच्चारण और बाजे आदि की ध्वनि के साथ भगवान विष्णु की प्रतिमा को तुलसी जी के निकट लाकर रखें। प्रतिमा को वस्त्रों से आच्छादित करना चाहिए। उस समय भगवान का आवाहन करें :-

भगवान केशव! आइए, देव! मैं आपकी पूजा करुंगा। आपकी सेवा में तुलसी को समर्पित करुंगा। आप मेरे सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करें।

इस प्रकार आवाहन के पश्चात तीन-तीन बार अर्ध्य, पाद्य और विष्टर का उच्चारण कर के इन्हें बारी-बारी से भगवान को समर्पित करें, फिर आचमनीय पद का तीन बार उच्चारण कर के भगवान को आचमन कराएँ। इसके बाद कांस्य के बर्तन में दही, घी और मधु(Honey) रखकर उसे कांस्य के पात्र से ही ढक दें तथा भगवान को अर्पण करते हुए इस प्रकार कहें- वासुदेव! आपको नमस्कार है, यह मधुपर्क(दही, घी तथा शहद के मिश्रण को मधुपर्क कहते हैं) ग्रहण कीजिए।

तदनन्तर हरिद्रालेपन और अभ्यंग-कार्य सम्पन्न कर के गौधूलि की वेला में तुलसी और विष्णु का पूजन पृथक-पृथक करना चाहिए। दोनों को एक-दूसरे के सम्मुख रखकर मंगल पाठ करें। जब भगवान सूर्य कुछ-कुछ दिखाई देते हों तब कन्यादान का संकल्प करें। अपने गोत्र और प्रवर का उच्चारण कर के आदि की तीन पीढ़ियों का भी आवर्तन करें। तत्पश्चात भगवान से इस प्रकार कहें :-

“आदि, मध्य और अन्त से रहित त्रिभुवन-प्रतिपालक परमेश्वर! इस तुलसी दल को आप विवाह की विधि से ग्रहण करें। यह पार्वती के बीज से प्रकट हुई है, वृन्दा की भस्म में स्थित रही है तथा आदि, मध्य और अन्त से शून्य है, आपको तुलसी बहुत ही प्रिय है, अत: इसे मैं आपकी सेवा में अर्पित करता हूँ। मैंने जल के घड़ो से सींचकर और अन्य प्रकार की सेवाएँ कर के अपनी पुत्री की भाँति इसे पाला, पोसा और बढ़ाया है, आपकी प्रिया तुलसी मैं आपको दे रहा हूँ। प्रभो! आप इसे ग्रहण करें।”

इस प्रकार तुलसी का दान कर के फिर उन दोनों अर्थात तुलसी और भगवान विष्णु की पूजा करें, विवाह का उत्सव मनाएँ। सुबह होने पर पुन: तुलसी और विष्णु जी का पूजन करें। अग्नि की स्थापना कर के उसमें द्वादशाक्षर मन्त्र से खीर, घी, मधु और तिलमिश्रित हवनीय द्रव्य की एक सौ आठ आहुति दें फिर ‘स्विष्टकृत’ होमक कर के पूर्णाहुति दें। आचार्य की पूजा करके होम की शेष विधि पूरी करें। उसके बाद भगवान से इस प्रकार प्रार्थना करें- हे प्रभो! आपकी प्रसन्नता के लिए मैंने यह व्रत किया है। जनार्दन इसमें जो न्यूनता हो वह आपके प्रसाद से पूर्णता को प्राप्त हो जाये।

यदि द्वादशी में रेवती का चौथा चरण बीत रहा हो तो उस समय पारण न करें। जो उस समय भी पारण करता है वह अपने व्रत को निष्फल कर देता है। भोजन के पश्चात तुलसी के स्वत: गलकर गिरे हुए पत्तों को खाकर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। भोजन के अन्त में ऊख, आंवला और बेर का फल खा लेने से उच्छिष्ट-दोष मिट जाता है।

तदनन्तर भगवान का विसर्जन करते हुए कहे- ‘भगवन! आप तुलसी के साथ वैकुण्ठधाम में पधारें। प्रभो! मेरे द्वारा की हुई पूजा ग्रहण करके आप सदैव सन्तुष्टि करें।’ इस प्रकार देवेश्वर विष्णु का विसर्जन कर के मूर्त्ति आदि सब सामग्री आचार्य को अर्पण करें। इससे मनुष्य कृतार्थ हो जाता है।

यह विधि सुनाकर सूतजी ने ऋषियों से कहा- हे ऋषियों! इस प्रकार जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक सत्य, शान्ति और सन्तोष को धारण करता है, भगवान विष्णु को तुलसीदल समर्पित करता है, उसके सभी पापों का नाश हो जाता है और वह संसार के सुखों को भोगकर अन्त में विष्णुलोक को प्राप्त करता है।

हे ऋषिवरों! यह कार्तिक माहात्म्य सब रोगों और सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाला है। जो मनुष्य इस माहात्म्य को भक्तिपूर्वक पढ़ता है और जो सुनकर धारण करता है वह सब पापों से मुक्त हो भगवान विष्णु के लोक में जाता है। जिसकी बुद्धि खोटी हो तथा जो श्रद्धा से हीन हो ऎसे किसी भी मनुष्य को यह माहात्म्य नहीं सुनाना चाहिए।

इति श्री कार्तिक मास माहात्म्य (क्षेमंकरी) पैंतीसवाँ अध्याय समाप्त

श्री कार्तिक मास समाप्त

Kartik Maas Mahatmya Katha Adhyaya 34

कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 34 (Kartik Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 34)


सूतजी ने ऋषियों से,
कहा प्रसंग बखान ।
चौंतीसवें अध्याय पर,
दया करो भगवान ॥


ऋषियों ने पूछा- हे सूतजी! पीपल के वृक्ष की शनिवार के अलावा सप्ताह के शेष दिनों में पूजा क्यों नहीं की जाती?

सूतजी बोले- हे ऋषियों! समुद्र-मंथन करने से देवताओं को जो रत्न प्राप्त हुए, उनमें से देवताओं ने लक्ष्मी और कौस्तुभमणि भगवान विष्णु को समर्पित कर दी थी। जब भगवान विष्णु लक्ष्मी जी से विवाह करने के लिए तैयार हुए तो लक्ष्मी जी बोली- हे प्रभु! जब तक मेरी बड़ी बहन का विवाह नहीं हो जाता तब तक मैं छोटी बहन आपसे किस प्रकार विवाह कर सकती हूँ इसलिए आप पहले मेरी बड़ी बहन का विवाह करा दे, उसके बाद आप मुझसे विवाह कीजिए। यही नियम है जो प्राचीनकाल से चला आ रहा है।

सूतजी ने कहा- लक्ष्मी जी के मुख से ऎसे वचन सुनकर भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी की बड़ी बहन का विवाह उद्दालक ऋषि के साथ सम्पन्न करा दिया। लक्ष्मी जी की बड़ी बहन अलक्ष्मी जी बड़ी कुरुप थी, उसका मुख बड़ा, दाँत चमकते हुए, उसकी देह वृद्धा की भाँति, नेत्र बड़े-बड़े और बाल रुखे थे। भगवान विष्णु द्वारा आग्रह किये जाने पर ऋषि उद्दालक उससे विवाह कर के उसे वेद मन्त्रों की ध्वनि से गुंजाते हुए अपने आश्रम ले आये। वेद ध्वनि से गुंजित हवन के पवित्र धुंए से सुगन्धित उस ऋषि के सुन्दर आश्रम को देखकर अलक्ष्मी को बहुत दु:ख हुआ। वह महर्षि उद्दालक से बोली- चूंकि इस आश्रम में वेद ध्वनि गूँज रही है इसलिए यह स्थान मेरे रहने योग्य नहीं है इसलिए आप मुझे यहाँ से अन्यत्र ले चलिए।

उसकी बात सुनकर महर्षि उद्दालक बोले- तुम यहाँ क्यों नहीं रह सकती और तुम्हारे रहने योग्य अन्य कौन सा स्थान है वह भी मुझे बताओ। अलक्ष्मी बोली- जिस स्थान पर वेद की ध्वनि होती हो, अतिथियों का आदर-सत्कार किया जाता हो, यज्ञ आदि होते हों, ऎसे स्थान पर मैं नहीं रह सकती। जिस स्थान पर पति-पत्नी आपस में प्रेम से रहते हों पितरों के निमित्त यज्ञ होते हों, देवताओं की पूजा होती हो, उस स्थान पर भी मैं नहीं रह सकती। जिस स्थान पर वेदों की ध्वनि न हो, अतिथियों का आदर-सत्कार न होता हो, यज्ञ न होते हों, पति-पत्नी आपस में क्लेश करते हों, पूज्य वृद्धो, सत्पुरुषों तथा मित्रों का अनादर होता हो, जहाँ दुराचारी, चोर, परस्त्रीगामी मनुष्य निवास करते हों, जिस स्थान पर गायों की हत्या की जाती हो, मद्यपान, ब्रह्महत्या आदि पाप होते हों, ऎसे स्थानों पर मैं प्रसन्नतापूर्वक निवास करती हूँ।

सूतजी बोले- अलक्ष्मी के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर उद्दालक का मन खिन्न हो गया। वह इस बात को सुनकर मौन हो गये। थोड़ी देर बाद वे बोले कि ठीक है, मैं तुम्हारे लिए ऎसा स्थान ढूंढ दूंगा। जब तक मैं तुम्हारे लिए ऎसा स्थान न ढूंढ लूँ तब तक तुम इसी पीपल के नीचे चुपचाप बैठी रहना। महर्षि उद्दालक उसे पीपल के वृक्ष के नीचे बैठाकर उसके रहने योग्य स्थान की खोज में निकल पड़े परन्तु जब बहुत समय तक प्रतीक्षा करने पर भी वे वापिस नहीं लौटे तो अलक्ष्मी विलाप करने लगी। जब वैकुण्ठ में बैठी लक्ष्मी जी ने अपनी बहन अलक्ष्मी का विलाप सुना तो वे व्याकुल हो गई। वे दुखी होकर भगवान विष्णु से बोली- हे प्रभु! मेरी बड़ी बहन पति द्वारा त्यागे जाने पर अत्यन्त दुखी है। यदि मैं आपकी प्रिय पत्नी हूँ तो आप उसे आश्वासन देने के लिए उसके पास चलिए। लक्ष्मी जी की प्रार्थना पर भगवान विष्णु लक्ष्मी जी सहित उस पीपल के वृक्ष के पास गये जहाँ अलक्ष्मी बैठकर विलाप कर रही थी।

उसको आश्वासन देते हुए भगवान विष्णु बोले- हे अलक्ष्मी! तुम इसी पीपल के वृक्ष की जड़ में सदैव के लिए निवास करो क्योंकि इसकी उत्पत्ति मेरे ही अंश से हुई है और इसमें सदैव मेरा ही निवास रहता है। प्रत्येक वर्ष गृहस्थ लोग तुम्हारी पूजा करेगें और उन्हीं के घर में तुम्हारी छोटी बहन का वास होगा। स्त्रियों को तुम्हारी पूजा विभिन्न उपहारों से करनी चाहिए। मनुष्यों को पुष्प, धूप, दीप, गन्ध आदि से तुम्हारी पूजा करनी चाहिए तभी तुम्हारी छोटी बहन लक्ष्मी उन पर प्रसन्न होगी।

सूतजी बोले- ऋषियों! मैंने आपको भगवान श्रीकृष्ण, सत्यभामा तथा पृथु-नारद का संवाद सुना दिया है जिसे सुनने से ही मनुष्य के समस्त पापों का नाश हो जाता है और अन्त में वैकुण्ठ को प्राप्त करता है। यदि अब भी आप लोग कुछ पूछना चाहते हैं तो अवश्य पूछिये, मैं उसे अवश्य कहूँगा।

सूतजी के वचन सुनकर शौनक आदि ऋषि थोड़ी देर तक प्रसन्नचित्त वहीं बैठे रहे, तत्पश्चात वे लोग बद्रीनारायण जी के दर्शन हेतु चल दिये। जो मनुष्य इस कथा को सुनता या सुनाता है उसे इस संसार में समस्त सुख प्राप्त होते हैं।

Kartik Maas Mahatmya Katha Adhyaya 33

कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 33 (Kartik Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 33)


दया दृष्टि कर हृदय में, भव भक्ति उपजाओ।
तैंतीसवाँ अध्याय लिखूँ, कृपादृष्टि बरसाओ।।


सूतजी ने कहा- इस प्रकार अपनी अत्यन्त प्रिय सत्यभामा को यह कथा सुनाकर भगवान श्रीकृष्ण सन्ध्योपासना करने के लिए माता के घर में गये। यह कार्तिक मास का व्रत भगवान विष्णु को अतिप्रिय है तथा भक्ति प्रदान करने वाला है। 1) रात्रि जागरण, 2) प्रात:काल का स्नान, 3) तुलसी वट सिंचन, 4) उद्यापन और 5) दीपदान- यह पाँच कर्म भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाले हैं इसलिए इनका पालन अवश्य करना चाहिए।

ऋषि बोले- भगवान विष्णु को प्रिय, अधिक फल की प्राप्ति कराने वाले, शरीर के प्रत्येक अंग को प्रसन्न करने वाले कार्तिक माहत्म्य आपने हमें बताया। यह मोक्ष की कामना करने वालो अथवा भोग की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को यह व्रत अवश्य ही करना चाहिए। इसके अतिरिक्त हम आपसे एक बात पूछना चाहते हैं कि यदि कार्तिक मास का व्रत करने वाला मनुष्य किसी संकट में फंस जाये या वह किसी वन में हो या व्रती किसी रोग से ग्रस्त हो जाये तो उस मनुष्य को कार्तिक व्रत को किस प्रकार करना चाहिए? क्योंकि कार्तिक व्रत भगवान विष्णु को अत्यन्त प्रिय है और इसे करने से मुक्ति एवं भक्ति प्राप्त होती है इसलिए इसे छोड़ना नहीं चाहिए।

श्रीसूतजी ने इसका उत्तर देते हुए कहा- यदि कार्तिक का व्रत करने वाला मनुष्य किसी संकट में फंस जाये तो वह हिम्मत करके भगवान शंकर या भगवान विष्णु के मन्दिर, जो भी पास हो उसमें जाकर रात्रि जागरण करे। यदि व्रती घने वन में फंस जाये तो फिर पीपल के वृक्ष के नीचे या तुलसी के वन में जाकर जागरण करे। भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने बैठकर विष्णुजी का कीर्तन करे। ऎसा करने से सहस्त्रों गायों के दान के समान फल की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य विष्णुजी के कीर्तन में बाजा बजाता है उसे वाजपेय यज्ञ के समान फल की प्राप्ति होती है और हरि कीर्तन में नृत्य करने वाले मनुष्यों को सभी तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त होता है। किसी संकट के समय या रोगी हो जाने और जल न मिल पाने की स्थिति में केवल भगवान विष्णु के नाममात्र से मार्जन ही कर लें।

यदि उद्यापन न कर सके तो व्रत की पूर्त्ति के लिए केवल ब्राह्मणों के प्रसन्न होने के कारण विष्णुजी प्रसन्न रहते हैं। यदि मनुष्य दीपदान करने में असमर्थ हो तो दूसरे की दीप की वायु आदि से भली-भांति रक्षा करे। यदि तुलसी का पौधा समीप न हो तो वैष्णव ब्राह्मण की ही पूजा कर ले क्योंकि भगवान विष्णु सदैव अपने भक्तों के समीप रहते हैं। इन सबके न होने पर कार्तिक का व्रत करने वाला मनुष्य ब्राह्मण, गौ, पीपल और वटव्रक्ष की श्रद्धापूर्वक सेवा करे।

शौनक आदि ऋषि बोले- आपने गौ तथा ब्राह्मणों के समान पीपल और वट वृक्षों को बताया है और सभी वृक्षों में पीपल तथा वट वृक्ष को ही श्रेष्ठ कहा है, इसका कारण बताइए।

सूतजी बोले- पीपल भगवान विष्णु का और वट भगवान शंकर का स्वरूप है। पलाश ब्रह्माजी के अंश से उत्पन्न हुआ है। जो कार्तिक मास में उसके पत्तल में भोजन करता है वह भगवान विष्णु के लोक में जाता है। जो इन वृक्षों की पूजा, सेवा एवं दर्शन करते हैं उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

ऋषियों ने पूछा- हे प्रभु! हम लोगों के मन में एक शंका है कि ब्रह्मा, विष्णु और शंकर वृक्ष स्वरुप क्यों हुए? कृपया आप हमारी इस शंका का निवारण कीजिए।

सूतजी बोले- प्राचीनकाल में भगवान शिव तथा माता पार्वती विहार कर रहे थे। उस समय उनके विहार में विघ्न उपस्थित करने के उद्देश्य से अग्निदेव ब्राह्मण का रुप धारण करके वहाँ पहुँचे। विहार के आनन्द के वशीभूत हो जाने के कारण कुपित होकर माता पार्वती ने सभी देवताओं को शाप दे दिया।

माता पार्वती ने कहा- हे देवताओं! विषयसुख से कीट-पतंगे तक अनभिज्ञ नहीं है। आप लोगों ने देवता होकर भी उसमें विघ्न उपस्थित किया है इसलिए आप सभी वृक्ष बन जाओ।

सूतजी बोले- इस प्रकार कुपित पार्वती जी के शाप के कारण समस्त देवता वृक्ष बन गये। यही कारण है कि भगवान विष्णु पीपल और शिवजी वट वृक्ष हो गये। इसलिए भगवान विष्णु का शनिदेव के साथ योग होने के कारण केवल शनिवार को ही पीपल को छूना चाहिए अन्य किसी भी दिन नहीं छूना चाहिए।

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