Shakambhari Mata Ki Katha, शाकम्भरी माता की कथा
माँ देवी शाकम्भरी दुर्गा माँ के अवतारों में से एक है। धार्मिक मान्यताओ के अनुसार माँ शाकम्भरी मानव जगत के कल्याण हेतु पृथ्वी लोक पर आई थी।
माता शाकम्भरी को शाक भवानी भी कहा जाता है, मां शाक एवं वनस्पति की देवी मानी जाती हैं जो कि माता पार्वती का स्वरूप हैं और इसी अवतार में माता ने दुर्गम नामक महादैत्य का वध किया जिसके कारण मां की दुर्गादेवी के रूप में ख्याति हुई।
शाकम्भरी नवरात्रि को गुप्त नवरात्रि के रूप में भी जाना जाता है। यह पर्व नौ दिनों तक मनाया जाता है जो कि पौष माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथी से शुरू हो कर माता के प्राक्टय दिवस पौष पूर्णिमा के दिन शाकम्भरी जयंती उत्सव के साथ पूर्ण होता है।
शाकम्भरी देवी की कथा
प्राचीन काल मे दुर्गम नाम का एक महान् दैत्य था। उस दुष्टात्मा दानव के पिता महादैत्य रूरू थे। दैत्य के मन मे विचार आया कि ‘देवताओं का बल वेदों मे है और उसी से उन की सत्ता है। वेदों के लुप्त हो जाने पर देवता भी नहीं रहेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है। अतः पहले वेदों को ही नष्ट कद देना चाहिये’। यह सोचकर वह दैत्य तपस्या करने के विचार से महान हिमालय पर्वत पर गया। ब्रह्मा जी का ध्यान करके उसने आसन जमा लिया। वह केवल वायुरस पीकर रहता था। उसने एक हजार वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की। उसके तेज से देवताओं और दानवों सहित सम्पूर्ण प्राणी आश्चर्यचकित हो उठे। तब कमलमुख सी शोभा वाले चतुर्मुख भगवान ब्रह्मा प्रसन्नतापूर्वक हंस पर सवार होकर वर देने के लिये दुर्गम के सम्मुख प्रकट हो गये और बोले – ‘तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हारे मन में जो वर पाने की इच्छा हो, मांग लो। आज तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर यहाँ आया हूँ।’ ब्रह्माजी के मुख से यह वाणी सुनकर दुर्गम ने कहा – देव, मुझे सम्पूर्ण वेद प्रदान करने की कृपा कीजिये। साथ ही मुझे वह बल दीजिये, जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ। दुर्गम की यह बात सुनकर चारों वेदों के परम अधिष्ठाता ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहते हुए ब्रह्मलोक की ओर चले गये। ब्राह्मण सभी वेदों का अध्ययन भूल गये।वेदों के अभाव मे समस्त क्रियाएँ जाती रही ब्राह्मण धर्म त्याग कर तामसिक आचरण करने लगे इस प्रकार सारे संसार में घोर अनर्थ उत्पन्न करने वाली अत्यन्त भयंकर स्थिति हो गयी और महान अकाल पड़ गया। इस प्रकार का भीषण अनिष्टप्रद समय उपस्थित होने पर कल्याणस्वरूपिणी भगवती जगदम्बा की उपासना करने के विचार से ब्राह्मण और देव हिमालय की शिवालिक पर्वत श्रृंखला पर चले गये। समाधि, ध्यान और पूजन के द्वारा उन्होंने देवी भुवनेश्वरी की स्तुति की। वे सत्य व्रत धारण कर रहते थे। उनका मन एकमात्र भगवती जगदम्बा में लगा था। वे बोले – ‘सबके भीतर निवास करने वाली देवेश्वरी महाशक्ति ! तुम्हारी प्रेरणा के अनुसार ही यह दुष्ट दैत्यराज कुछ करता है अन्यथा यह कुछ भी करने मे असमर्थ है। तुम अपनी इच्छा से जैसा चाहो वैसा ही करने में पूर्ण समर्थ हो। कल्याणी! जगदम्बिका प्रसन्न हो जाओ, प्रसन्न हो जाओ, हे भवानी प्रसन्न हो जाओ! महाशक्ति हम तुम्हें प्रणाम करते हैं।‘इस प्रकार ब्राह्मणों के प्रार्थना करने पर भगवती जगदम्बा, जो ‘भुवनेश्वरी’ एवं माहेश्वरी’ के नाम से विख्यात हैं। साक्षात् प्रकट हो गई। उनका यह विग्रह कज्जलगिरी की तुलना कर रहा था। नैत्र ऐसे थे, मानों नीलकमल हो। कमल के पुष्प पल्लव और मूल हाथों मे सुशोभित थे। सम्पूर्ण सुन्दरता का आदि स्रोत भगवती आयोनिजा का यह स्वरूप बड़ा ही कमनीय था। करोडो सूर्यों के समान चमकने वाला यह विग्रह करूण रस का अपार सागर था। ऐसा दिव्य रूप सामने उपस्थित करने के पश्चात् जगत् की रक्षा में तत्पर रहने वाली करूण हृदया भवानी अपनी अनन्त आँखों से सहस्रों जलधारायें पृथ्वी पर गिराने लगी। उनके नेत्रों से निकले हुए जल के द्वारा नौ रात तक संसार मे महान् वृष्टि होती रही। वे देवता व ब्राह्मण सब एक साथ मिलकर भगवती की स्तुति करने लगे।
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महादेवी ! तुम्हें नमस्कार है। महाशक्ति ! तुमने हमारा संकट दूर करने के लिये सहस्रों नेत्रों से सम्पन्न अनुपम रूप धारण किया है। हे मात ! भूख से अत्यन्त पीडित होने के कारण तुम्हारी विशेष स्तुति करने में हम असमर्थ हैं। अम्बे ! महेशानी, शत नैत्रो वाली देवी शताक्षी! तुम दुर्गमासुर नामक दैत्य से वेदों को लाने की कृपा करो। व्यास जी कहते हैं – राजन ! ब्राह्मणों और देवताओं की यह करूण पुकार सुनकर भगवती शिवा ने अनेक प्रकार के शाक तथा स्वादिष्ट फल अपने हाथ से उन्हें खाने के लिये दिये और भांति- भांति के शाक फल अपने शरीर से उत्पन्न कर पृथ्वी पर वितरित कर दिये भाँति-भाँति के अन्न फल सामने उपस्थित कर दिये। पशुओं के खाने योग्य अनेक रस से सम्पन्न घास भी उन्हें देने की कृपा की। राजन ! उसी दिन से भगवती का नाम ”शाकुम्भरी” पड गया।सभी देवतागण शाकम्भरी देवी के जयकारे लगाने लगे शिवालिक पहाडियों मे कोलाहल मच जाने पर असुरों को देवताओं की स्थिति का आभास हो गया। उन्होंने अपनी सेना सजायी और अस्त्र शस्त्र से संपन्न होकर वह युद्ध के लिये चल पड़ा। उसके पास एक अक्षोहिणी सेना थी। तदनन्तर भगवती शाकम्भरी ने संसार की रक्षा के लिये चारों ओर तेजोमय चक्रखड़ा कर दिया। तदनन्तर देवी और दैत्य-दोनों की लड़ाई ठन गयी। धनुष की प्रचण्ड टंकार से चारों दिशाएँ गूँज उठी। भगवती की माया से अनेकों उग्र शक्तियां प्रकटी और देवी से प्रेरित शक्तियों ने दानवों की बहुत सी सेना नष्ट कर दी। तब दुर्गम स्वयं शक्तियों के सामने उपस्थित होकर उनसे युद्ध करने लगा। दस दिनों में राक्षस की सम्पूर्ण अक्षोहिणी सेनाएँ देवी शाकम्भरी की माया से वध करदी गयी। अब भगवती जगदम्बा शाकम्भरी और दुर्गमासुर दैत्य इन दोनों में भीषण युद्ध होने लगा।इक्कीस दिवस तक लडाई चली इक्कीसवें दिन जगदम्बा शाकम्भरी के पाँच बाण दुर्गम की छाती में जाकर घुस गये। फिर तो रूधिर से सना वह दैत्य भगवती परमेश्वरी के सामने प्राणहीन होकर गिर पड़ा। तब देवता नीति की अधिष्ठात्री शाकम्भरी देवी की स्तुति करने लगे- परिवर्तन शील संसार की एकमात्र कारण भगवती परमेश्वरी! शाकम्भरी!शताक्षी शतलोचने! तुम्हे कोटिशः नमस्कार है। सम्पूर्ण उपनिषदों से प्रशंसित तथा दुर्गमासुर नामक दैत्य का संहार करने वाली एवं पंचकोसी सिद्धपीठ में रहने वाली कल्याण-स्वरूपिणी भगवती शाकेश्वरी! तुम्हें नमस्कार है। व्यासजी कहते हैं – राजन! ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं के इस प्रकार स्तवन एवं विविध द्रव्यों के पूजन करने पर भगवती शाकम्भरी तुरन्त संतुष्ट हो गयीं। कोकिल के समान मधुर भाषिणी शताक्षी देवी ने प्रसन्नतापूर्वक उस राक्षस से वेदों को त्राण दिलाकर देवताओं को सौंप दिया। वे बोलीं कि मेरे इस उत्तम महामहात्म्य का निरन्तर पाठ करना चाहिए। मैं उससे प्रसन्न होकर सदैव समस्त संकट दूर करती रहूँगी। व्यासजी कहते हैं – राजन ! जो भक्ति परायण बडभागी स्त्री पुरूष निरन्तर इस अध्याय का श्रवण करते हैं, उनकी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं और अन्त में वे देवी के परमधाम को प्राप्त हो जाते हैं।बोलिये शाकम्भरी मैय्या की जय
शाकुंभरी देवी की एक अन्य कथा इस प्रकार से है –
शाकुंभरी देवी ने 100 वर्षों तक तप करा और महीने के अंत में एक बार शाकाहारी भोजन कर तप किया था. ऐसी निर्जीव जगह पर जहां सौ वर्ष तक पानी भी नहीं था.इन्ही देवी ने कृपा करके अपने अंगों से कई प्रकार की शाक, फल एवं वनस्पतियों को प्रकट किया. इसलिए उनका नाम शाकंभरी प्रसिद्ध हुआ. साधु संत माता का यह चमत्कार देखने के लिए वहां पर आए उन्हें शाकाहारी भोजन दिया गया. इसका यह तात्पर्य था कि माता केवल शाकाहारी भोजन ही ग्रहण करती है इस घटना के बाद माता का नाम शाकंभरी देवी पड़ा. पौष मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से शाकंभरी नवरात्रि का आरंभ होता है, जो पौष पूर्णिमा पर समाप्त होता है.इस दिन शाकंभरी जयंती का पर्व मनाया जाता है.
इस प्रकार माँ शाकम्भरी की कथा सम्पन्न हुई । भक्त गण प्रेम से बोलिए माँ भगवती के रूप माँ शाकम्भरी की जय। [ यह शाकम्भरी माता की कथा www.durganavratri.in का कॉपीराइटेड कंटेंट है | ]
शाकम्भरी नवरात्रि व शाकम्भरी पूर्णिमा इस साल व आने वाले सालों में कब कब है यह जानने के लिए आप मेरी वेबसाइट www.durganavratri.in पर देख सकते हैं |