Adhik Maas Katha Adhyay 9, Purushottam Maas Katha Adhyay 9

पुरुषोतम मास माहात्म्य/अधिक मास माहात्म्य अध्याय– 9 (Adhik Maas Adhyay 9, Purushottam Maas Adhyay 9)

पुरुषोतम मास माहात्म्य / अधिक मास माहात्म्य अध्याय – 9


adhik maas mahatmya adhyay 9

सूतजी बोले:-

तदनन्तर विस्मय से युक्त नारद मुनि ने मेधावी ऋषि की कन्या का अद्‌भुत वृत्तान्त पूछा ॥ १ ॥

नारदजी बोले:-

 हे मुने! उस तपोवन में मेधावी की कन्या ने बाद में क्या किया? और किस मुनिश्रेष्ठ ने उसके साथ विवाह किया? ॥ २ ॥

श्रीनारायण बोले :-

अपने पिता को स्मरण करते-करते और बराबर शोक करते-करते उस घर में कुछ काल उस कन्या का व्यतीत हुआ ॥ ३ ॥

सिंह से भागती हिरणी की तरह घबड़ाई हुई, सुने घर में रहनेवाली, दुःखरूप अग्नि से उठी हुई भाप द्वारा बहते हुए अश्रुनेत्र वाली, जलते हुए हृत्‍कमल वाली, दुःख से प्रतिक्षण गरम श्‍वास लेनेवाली, अतिदीना, घिरी हुई सर्पिणी की तरह अपने घर में संरुद्ध, अपने दुःख को सोचती और दुःख से मुक्त होने के उपाय को न देखती हुई।

उस कृशोदरी को उसके शुभ भविष्य की प्रेरणा से सान्‍त्वना देने के लिए उस वन में अपनी इच्छा से ही परक्रोधी – जिनको देखने से ही इन्द्र भयभीत होते हैं – ऐसे, जटा से व्याप्त, साक्षात्‌ शंकर के समान भगवान्‌ दुर्वासा ऋषि आये….

हे नारद! भगवान्‌ कृष्ण ने राजा युधिष्ठिर से कहा कि हे राजेन्द्र! वह दुर्वासा ऋषि वही है जिनको आपकी माता कुन्ती ने बालापन में प्रसन्न किया था। तब उन सुपूजित महर्षि ने देवताओं को आकर्षण करने वाली विद्या माता कुंती को दी थी और हे भूपाल! एक बार रुक्मणि के साथ जाते समय मैंने उन्हें रथ में बिठा लिया था… मार्ग में दोनों को प्यास ने सताया.. रुक्मणि ने अपने सूखे अधरों और तालू को दिखाकर मुझे जल लाने को कहाँ… 

मै जल के हेतु पदाघात करता हुआ चला और रुक्मिणी के प्रेम के वशीभूत मैंने भोगवती नाम की नदी को उत्पन्न किया। तब वही भोगवती ऊपर से बहने लगी। अनन्तर उसी के जल से रुक्मिणी की प्यास को मैंने बुझाया। इस प्रकार रुक्मिणी की प्यास का बुझना देख उसी क्षण अग्नि की तरह ऋषि दुर्वासा क्रोध से जलने लगे.. और प्रलय की अग्नि के समान उठकर ऋषि दुर्वासा ने मुझे शाप दिया।

और बोले – बड़ा आश्‍चर्य है, हे श्रीकृष्ण! रुक्मिणी तुमको सदा अत्यन्त प्रिय है.. अतः स्त्री के प्रेम से युक्त तुमने मेरी अवज्ञा कर अपना महत्व दिखलाते हुए, रुक्मणि को इस प्रकार पानी पिलाया.. अतः तुम दोनों का वियोग होगा, इस प्रकार उन्होंने शाप दिया था। हे युधिष्ठिर! वही यह दुर्वासा मुनि हैं…

साक्षात्‌ रुद्र के अंश से उत्पन्न, दूसरे कालरुद्र की तरह, महर्षि अत्रि के उग्र तपरूप कल्पवृक्ष के दिव्य फल… पतिव्रताओं के सिर के रत्‍न, अनुसूया भगवती के गर्भ से उत्पन्न, अत्यन्त मेधायुक्त दुर्वासा नाम के ऋषि… अनेक तीर्थों के जल से भींगी हुई जटा से भूषित सिर वाले, साक्षात्‌ तपोमूर्ति दुर्वासा ऋषि को आते देखकर उस ब्राह्मण कन्या ने शोकसागर से निकल कर धैर्य से मुनि के चरणों में प्रार्थना की।

प्रार्थना करने के बाद–

प्रार्थना करने के बाद जैसे बाल्मीकि ऋषि को जानकी अपने आश्रम में लाई थीं वैसे ही वह कन्या भी ऋषि दुर्वासा को अपने घर में लाकर अर्ध्य, पाद्य और विविध प्रकार के जंगली फलों और पुष्पों से आतिथ्य करके वह कन्या विनय करती हुई बोली -– हे महाभाग! हे अत्रि कुल के सूर्य! आपको प्रणाम है। हे साधो! मुझ अभाग्या के घर में आज आपका शुभागमन कैसे हुआ? हे मुने! आपके आगमन से आज मेरा भाग्योदय हुआ है… अथवा मेरे पिता के पुण्य के प्रवाह से प्रेरित, आप मुझे सान्त्वना देने के लिये ही मुनिसत्तम आये हैं… आप जैसे महात्माओं के पाँव की धूल जो है वह तीर्थरूप है उस धूल का स्पर्श करने वाली मैं अपना जन्म आज सफल कर सकी हूँ, आज मेरे सभी व्रत भी सफल हुए… आप जैसे पुण्यात्मा के जो मुझे आज दर्शन हुए। अतः आज मेरा उत्पन्न होना और मेरे सभी पुण्य सफल है… ऐसा कहकर वह कन्या दुर्वासा के सामने चुपचाप खड़ी हो गयी।

तब भगवान्‌ शंकर के अंश से उत्पन्न दुर्वासा मुनि मन्द, आतिथ्य से संतुष्ट और प्रसन्न होकर बोले:-

 हे पुत्री! तू बड़ी अच्छी है तूने अपने पिता के कुल को तार दिया। यह मेधावी ऋषि के तप का फल है, जो उन्हें तेरे जैसी कन्या उत्पन्न हुई… तेरी धर्म में तत्परता जान, कैलास से, मैं यहाँ आया और तेरे घर आकर तेरे द्वारा मेरा पूजन हुआ… हे वरारोहे! मैं शीघ्र ही बदरिकाश्रम में मुनीश्‍वर सनातन, नारायण, देव के दर्शन के लिये जाऊँगा जो प्राणियों के हित के लिए अत्यन्त उग्र तप कर रहे हैं।

महर्षि दुर्वासा को संतुष्ट एवम प्रसन्न देखकर ब्राह्मण कन्या बोली – हे ऋषिराज! आपके दर्शन पाकर मेरा शोकसमुद्र सूख गया… अब इसके बाद मेरा भविष्य उज्ज्वल है; क्योंकि आपने मुझे सान्‍त्वना दी…

हे मुने! मेरी बड़ी भारी ज्वाला युक्त दुःख रूप अग्नि को क्या आप नहीं जानते हैं? हे दयासिन्धो! हे शंकर! उस दुःखाग्नि को शान्त कीजिये। मेरे विचार से हर्ष का कोई भी कारण मुझे दिखलाई नहीं देता

न मेरी माता है, न पिता, न ही भाई है, जो मुझे धैर्य प्रदान करते, अतः दुःख समुद्र से पीड़ित मैं कैसे जीवित रह सकती हूँ?…. जिस-जिस दिशा में मैं देखती हूँ वह-वह दिशा मुझे शून्य ही प्रतीत होती है, इसलिये हे तपोनिधे! मेरे दुःखका निस्तार आप शीघ्र करें… मेरे साथ विवाह करने के लिए कोई भी तैयार नहीं होता, इस समय मेरा विवाह न हुआ तो मैं शूद्रा हो जाऊँगी.. इसी भय से न मुझे निद्रा आती है और न भोजन में मेरी रुचि होती है…

हे ब्रह्मन्‌! अब तो मुझे मृत्यु के अतिरिक्त ओर कोई मार्ग नहीं सूझता… ऐसा कहकर आँसू बहाती हुई वह कन्या, ऋषि दुर्वासा के सामने चुप हो गयी…

तब ऋषि दुर्वासा कन्या का दुःख दूर करने का उपाय सोचने  लगे… 

श्रीनारायण बोले:-

इस प्रकार मुनि कन्या के वचन सुनकर और इसका अभिप्राय समझ कर बड़े क्रोधी मुनिराज दुर्वासा ने उस कन्या का कुछ हित विचार पूर्ण कृपा से उसे देखकर सारभूत उपाय बतलाया…

॥ इति श्री बृहन्नारदीये पुरुषोत्तम मास माहात्म्ये दुर्वासस्त आगमन नाम नवमोऽध्यायः संपूर्णम ॥

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