पुरुषोतम मास माहात्म्य/अधिक मास माहात्म्य अध्याय– 4 (Adhik Maas Adhyay 4, Purushottam Maas Adhyay 4)
पुरुषोतम मास माहात्म्य / अधिक मास माहात्म्य अध्याय – 4
जय श्री राधे कृष्णा !
इसके बाद भगवान श्री नारायण बोले:-
हे नारद! भगवान् श्री हरि ने जो शुभ वचन अधिमास से कहे वह लोगों के कल्याण की इच्छा से हम तुम्हे कहते हैं, सुनो ॥ १ ॥
बैकुंठ लोक में भगवन की अनेक प्रकार से स्तुतिया और बारम्बार नमस्कार करने के पश्चात् अधिकमास ने भगवान से करबद्ध होकर निवेदन किया –हे नाथ! हे कृपानिधे! हे हरे! मेरे से जो बलवान् हैं उन्होंने ‘यह मलमास है’ ऐसा कहकर मुझ दीन को अपनी श्रेणी से निकाल दिया है।
मै आपकी शरण हूँ , बलिष्ट लोग मुझे मलमास कहते है और मेरा निरादर करते है। मुझे स्वमिराहित और मलिन कहकर शुभ कर्मो के निमित मेरा त्याज्य किया हुआ है। हे दीनवत्सल भगवन! कंस की कोपग्नी से जिस प्रकार अपने वासुदेव की पत्नी देवकी को सुरक्षित किया, आप वैसे मेरी रक्षा क्यों नहीं करते? यमुना में कालिय नाग के विष से गौ चरानेवालों तथा पशुओं की आपने जैसे रक्षा की वैसे हे दीनबंधु! आप मुझ शरणागत की रक्षा क्यों नहीं करते? पशु और पशुओं को पालने वालों एवं पशुपालकों की स्त्रियों की जैसे पहिले व्रज में सर्पतके वन में लगी हुई अग्नि से आपने रक्षा की वैसे हे दीनवत्सल! कहिये मुझ शरण आये हुए की क्यों रक्षा नहीं करते ॥ ७ ॥
जैसे अपने जरासंध के बंधन से राजाओ को मुक्त किया, ग्राह के मुख से जिस प्रकार गज को मुक्ति दिलाई, उसी प्रकार शरण में आये हुए मुझ दीन की रक्षा क्यों नहीं करते?
अपने स्वामी देवता वाले मासों द्वारा शुभ कर्म में वर्जित, मुझ स्वामिरहित को देखते ही आपकी दयालुता कहाँ चली गयी और आज यह कठोरता कैसे आ गयी? ॥ ३ ॥
इस प्रकार भांति भांति से मल मास भगवन से विनती करता रहा..
श्रीनारायण बोले:-
इस प्रकार भगवान् को कह कर स्वामीरहित मलमास, आँसू बहता मुख लिये जगत्पति के सामने चुपचाप खड़ा रहा ॥ १० ॥
उसको रोते देखते ही भगवान् शीघ्र ही दयार्द्र हो गये और पास में खड़े दीनमुख मलमास से बोले ॥ ११ ॥
श्रीहरि बोले :-
हे वत्स! तुम अति शोकाकुल हो.. यह महान शोक जिससे तुम व्याकुल हो, कौन सा है.. तुम अब शोक को त्याग दो.. क्युकी यहाँ आकर महादुःखी नीच भी शोक नहीं करता फिर तुम कैसे यहाँ आकर शोक में मन को दबाये हुए हो ॥
जहाँ आने से न शोक होता है, न कभी बुढ़ौती आती है, न मृत्यु का भय रहता है, यहाँ हमेशा नित्य आनन्द रहा करता है। इस प्रकार के बैकुण्ठ में आकर तुम कैसे दुःखित हो? ॥ १५ ॥ तुमको यहाँ पर दुःखित देखकर वैकुण्ठवासी बड़े विस्मय को प्राप्त हो रहे हैं, हे वत्स! तुम कहो इस समय तुम मरने की क्यों इच्छा करते हो? ॥ १६ ॥
श्रीनारायण बोले:-
इस प्रकार भगवान् के वाक्य सुनकर बोझा लिये हुए आदमी जैसे बोझा रख कर श्वास पर श्वास लेता है इसी प्रकार श्वासोच्छ्वास लेकर – अधिमास मधुसूदन से बोला ॥
अधिमास बोला:-
हे भगवन्! आप सर्वव्यापी हैं, आप से अज्ञात कुछ नहीं है, आकाश की तरह आप विश्व में व्याप्त होकर बैठे हैं ॥ १८ ॥ आप चर-अचर सब में व्याप्त हो. आप सर्वसाक्षी और विश्वदृष्टा हो तथा निरंजन निराकार रूप में सब प्राणी आप में ही निवास करते है, हे जगन्नाथ! आप के बिना कुछ भी नहीं है। क्या आप मुझ अभागे के कष्ट को नहीं जानते हैं? ॥ २० ॥ तथापि हे नाथ! मैं अपनी व्यथा को कहता हूँ जिस प्रकार मैं दुःखजाल से घिरा हुआ हूँ वैसे दुःखित को मैंने न कहीं देखा है और न सुना है ॥ २१ ॥
क्षण, निमेष, मुहूर्त, पक्ष, मास, दिन और रात सब अपने-अपने स्वामियों के अधिकारों से सर्वदा बिना भय के प्रसन्न रहते हैं ॥ २२ ॥ मेरा न कुछ नाम है, न मेरा कोई अधिपति है और न कोई मुझको आश्रय है अतः क्षणादिक समस्त स्वामी वाले देवों ने शुभ कार्य से मेरा निरादर किया है ॥ २३ ॥ यह मलमास सर्वदा त्याज्य है, अन्धा है, गर्त में गिरने वाला है ऐसा सब कहते हैं। इसी के कारण से मैं मरने की इ्च्छा करता हूँ अब जीने की इ्च्छा नहीं है ॥ २४ ॥ निन्द्य जीवन से तो मरना ही उत्तम है। जो सदा जला करता है वह किस तरह सो सकता है, हे महाराज! इससे अधिक मुझको और कुछ कहना नहीं है ॥ २५ ॥
वेदों में आपकी इस तरह प्रसिद्धि है कि पुरुषोत्तम आप परोपकार प्रिय हैं और दूसरों के दुःख को सहन नहीं करते हैं ॥ २६ ॥ अब आप अपना धर्म समझकर जैसी इच्छा हो वैसा करें। आप प्रभु और महान् हैं, आपके सामने मुझ जैसे पामर को घड़ी-घड़ी कुछ कहते रहना उचित नहीं है ॥ २७ ॥ मैं मरूँगा, मैं मरूँगा, मैं अब न जीऊँगा, ऐसा पुनः पुनः कहकर वह अधिमास, हे ब्रह्मा के पुत्र! चुप हो गया ॥ २८ ॥
और एकाएक श्रीविष्णु के निकट गिर गया। तब इस प्रकार गिरते हुए मलमास को देख भगवान् की सभा के लोग बड़े विस्मय को प्राप्त हुए ॥ २९ ॥
श्रीनारायण बोले:-
इस प्रकार कहकर चुप हुए अधिमास के प्रति बहुत कृपा-भार से अवसन्न हुए श्रीकृष्ण, मेघ के समान गम्भीर वाणी से चन्द्रमा की किरणों की तरह उसे शान्त करते हुए बोले ॥ ३० ॥
सूतजी बोले:-
हे विप्रो! वेदरूप ऋद्धि के आश्रित नारायण का पापों के समूहरूप समुद्र को शोषण करने वाला बड़वानल अग्नि से समान वचन सुनकर प्रसन्न हुए नारदमुनि, पुनः आदिपुरुष के वचनों को सुनने की इच्छा से बोले ॥ ३१ ॥
इतिश्री बृहन्नारदीय पुराणे पुरुषोत्तममासेअधिकमासे बैकुंठ पदार्पण नाम चतुर्थोऽध्यायः समाप्त